यत्रनास्ति न च तत्र मोक्षो, यत्रास्तिमोक्षो न च तत्र भोगाः।
श्रीसुंदरीसेवनतत्पराणांभोगस्य मोक्षस्य करस्थ एव।।
अर्थात जहाँ पर भोग होता है वहाँ पर योग व मोक्ष नहीं होता। या कहें जहाँ योग व मोक्ष होता है, वहाँ भोग नहीं होता। साधारण शब्दों में जो संपन्न हो या संपन्नता जहाँ हो वहाँ भक्ति व योग वाला मन नहीं हो पाता। वैदिक आचरण व भक्ति व योगवालो के पास मन तो होता है पर उतनी संपन्नता नहीं हो पाती। केवल एक श्रीयंत्र ही है जो हमें भोग भी देता है व योग, मोक्ष भी देता है। यानी सब कुछ देने में सर्वसमर्थ है। श्रीयंत्र में श्रीविद्या का तात्पर्य व उपासना का समाथ्र्य समाया है। श्रीकामः सततंजपेत, यानी श्री की कामना के लिये जिस की सतत आराधना की जाय वो है श्रीयंत्र। “तीर्थस्नानसहस्त्रकोटिफलदंश्रीचक्रोपादोदकमं” अर्थात श्रीयंत्र के चरणोदक को ग्रहण करने से एक हजार तीर्थो में स्नान करने का पुण्य फल मिलता है। “रत्नेहेमनि रुप्ये च ताम्रेद्रषादि च क्रमात” यानी सोने, चांदी या ताम्बे से बना ही श्रीयंत्र श्रेष्ठ है - तंत्रराज तंत्रानुसार । अन्य शास्त्रों में जहाँ श्रीयंत्र के महात्मय का वर्णन है वहाँ भी इन्ही तीनो धातुओ से बने यंत्रो को ही महत्व दिया है न कि अष्ट वा पंच धातूओ का। इन धातुओ में यंत्र के वजन का भी प्रमाण कम से कम 250 ग्राम का होना चाहिये।इनका प्रकार भी तीन तरह से है भूपृष्ठ यानी सीधा जमीन के समतल, मेरुपुष्ठ यानी पिरामिड जैसा या कूर्मपृष्ठ जो कि कछुवे की पीठ पर बनाया जाता है।चतुभिः श्री कंण्ठैः शिवयुवतिभिः पंचभिरपि, प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपिमूलप्रकृतिभिः।त्रयश्चत्वरिंशद्वसुदलकलाश्रश्च त्रिवलयः, त्रिरेखाभिः सार्धतव शरणकोणः परिणताः।।
ये यंत्र की स्थापना व प्राणप्रतिष्टागुरुपुष्यामृत योग, रविपुष्यामृत योग, अक्षयतृतीया, धनत्रियोदशी, दिपावली, नववर्ष, शुक्रवार, एकादशी, त्रयोदशी, पूर्णिमा या चारों नवरात्रों में कर सकते है। श्रीयंत्र को यंत्रराज कहा गया है।क्यो कि सब यंत्रो में जो श्रेष्ठ है वह श्रीयंत्र है। एक होता है मंत्र, एक होेता है यंत्र, एक होताहै तंत्र, एक होती है प्रतिमा। जो मंत्र है वह देवता का शाब्दिक या कहैं वाचिक स्वरुप होता है। जो प्रतिमा या विग्रह होती है वह ध्यान लगाने के लिये होती है। परंतु अगर उस मंत्र को एक उर्जा के स्वरुप में प्रगट किया जा सके तो कैसा लगेगा वह यंत्र होता है। उनमें श्रीयंत्र एक संसद की भांति है। जैसे संसद में स्पीकर, प्रधानमंत्री इत्यादि का स्थान निश्चित होता है, उसी प्रकार विभिन्न उर्जाओ को आवाहन कर श्रीयंत्र में स्थान दिया जाता है। और तंत्र होता है। उसका प्रयोग होताहै। अतः तंत्र में औषधी, जडी-बूटी आदि भी आती हैं, पदार्थ भी आते हैं, प्रयोग भी आता है। श्रीयंत्र की जो साधना है उसके तीन अभिन्न अंग है, वो हैं ललितासहस्त्रनाम, श्रीयंत्र और मंत्र। मंत्र हो सकता है त्रयक्षरी हो या पंचदशी हो या षोढाक्षरी हो सकता है महाषोढाक्षरी हो, बिना श्रीयंत्र की साधना के श्रीविद्या की साधना पूरी नहीं हो सकती। श्रीविद्या की जो मूलदेवी हैं उनके अंर्तगत पंद्रह नित्याओ को व अष्टसिद्धीयो को स्थान दिया जाता है। और हर चक्र की जिसमें भुपुरसेचलतेहुए अष्टदल षोडशदल आदि भिन्न-भिन्न चक्र होते है, उनकी एक एक योगनी उस चक्र की अधिष्ठात्री होतीहै। एक होतीहै सृष्टीक्रम पूजा जो बनी है ग्रहस्थीयो के लिये है, क्यो कि वो जीवन मेंआगे बढना चाहते हैं, क्यो कि कुछ उत्पन्न करना है कुछ प्राप्त करना, इसमे साधक भीतर से बाहर की तरफ जाते है। एक होती है संहारक्रम इस मे साधक बाहर से भीतर की तरफ जाते है क्यो कि साधक सब कुछ समेंटना चाहता है। सृष्टीक्रम मे साधक प्रतीपदा से पूर्णिमा तक जाते है क्यो कि उसकी धरणा सृष्टीक्रम की है, आगे बढने की है। संहारक्रम ममं साधक प्रतीपदा से अमावस्या तक जाते है क्यो कि उसकी धरणा संहार की है, समेंटने की है। एक होती है स्थितिक्रम स्थायित्व के लिये। इनमें सृष्टीक्रम के श्रीयंत्र संहारक्रम या स्थिति से भिन्न होते हैं। सन 1966-67 में एक प्रयोग हुआ था जो कि अजीत मुखर्जी की पुस्तक में वर्णित है, एक ट्यूबली गयी उस पर रबड की एक अतिम हीन परत इस तरह चढायी गयी कि ट्यूब में अगर ध्वनीहोतोवहरबडमेंकंपंनहो।उसकेउपररेतबिछायीगयी। उस ट्यूबमेंश्रीविद्या के मंत्र का उच्चारण प्रसारित किया गया, जब उस मंत्र की पुनरुक्ति हुईतोरेत उछलने लगी, कुछ समय बादलगभगलगभगश्रीयंत्र काजो मध्य भाग है उस के समान की आकृती निर्मित हुई। जो दृष्टा थे ऋषि थे उन्होंने देखाकि यदि इस ध्वनी को एक आकारमेंउताराजाय तोकैसीदीखेगी, क्योकिवहमां त्रिपुरस\दरीकाउर्जा क्षेत्र है।
श्री यंत्र की जोपूजाहैउसमेंनवनाथंिजन्होने यह साधनासिद्ध की,समस्तदेवियोंका, पंद्रहनित्याओंका,अष्टसिद्धीयोका,गणपतिभगवानका,दश द्विकपालोकाव अष्टमूलयोगनियोकापूूजनहोताहै। यह सारापूजनसिर्फश्रीयंत्र मेहीसंभवहै।अगरपूरा न करसकेतो खड्ंगमाला स्त्रोत्र मेंसभीदेविदेवता के नामजोश्रीयंत्र मेंहोतेहै, के द्वाराभीश्रीयंत्र पूजनसंभवहै।हमनेपायाहैकिमां की पूजाव्यक्तिचाहेअज्ञानतासेकरेे या जानबूझ के करेदीक्षीतहो के करे या बगैरदीक्षा के फलितअवश्य होतीहैव्यर्थनहींजाती।कभी न कभीअपनाप्रभावजरुरदेतीहै।चूकिदेविमांस्वरुपहै, मांबच्चेकीगलतियोकोभीमाफकरतीहै, हरमांचाहतीहैकिउसकीसंतानसुखीरहे, उसकीइच्छाओकोपूर्णकरतीहै।अतः देवि की आराधनाअपनेआपमेंपरमशक्तिशालीहै।श्रीयंत्र के माध्यम सेजोदेविकीआराधना की जातीहैउससेजोउर्जाजाग्रतहोतीहैउसकोसंभालने के लियेअगरसाथमेंकिसीसात्विकउर्जाकीपूजा की जाय जैसे लक्ष्मी नारायण तोविवेकजाग्रतरहताहै।वर्नाउर्जा के जाग्रत हो नसेजैसेराकेटउपरतकतोजाताहैउर्जा के समाप्त होने पर नष्ट भ्रष्ट होकर बिखरजाताहै।लक्ष्मी(संम्पति)को केवल नारायण रखना जानतेहैं।श्रीकिसीकारणसेनारायण के साथहै।हलाहलकापानकरनाहैतो योगीहोनापडेगा।परंतूसात्वकिता के साथबगैरअंहकार के आयेअगरआज के युगमेंचलनाहैसमाजमेंचलनाहैतोनारायण की आराधनानितांतआवश्यक है।
यह लेख लिखनेेकातात्पर्यश्रीविद्याउपासना के कुछरहस्योपरप्रकाशडालने के लियेथाजोअपने जीवनमेंअनुभूतहुए व गुरुदेव की कृपासेप्राप्तहोनेकासंयोगबना।उक्तविचारव्यक्ति द्वाराअपने घर या कार्यस्थलपरश्रीयंत्र की सहीप्रकारसेस्थापनाहेतूहै न किमंदिरआदि के लिये।ऊँ शांती शांती शांतीः
सुरेशचतुर्वेदी“राजू”
9322880415
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