Monday, 26 August 2019

श्रीयन्त्रराज साधना

।। ॐ ।। 
श्री महागणपतये नमः 
।। श्री ललितांबिकाये नमः ।।
माँ राजराजेश्वरी श्रीललिताम्बा षोडशी श्रीविद्या महात्रिपुरसुँदरी 
श्रीचक्र एक यन्त्र है जिसका प्रयोग श्री विद्या में होता है। इसे 'श्री यंत्र', 'नव चक्र' भी कहते हैं। यह सभी यंत्रो में शिरोमणि है और इसे 'यंत्रराज' कहा जाता है। वस्तुतः यह एक एक जटिल ज्यामितीय आकृति है। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी भगवती माँ राजराजेश्वरी श्रीललिताम्बा षोडशी श्रीविद्या महात्रिपुरसुँदरी हैं। श्री यंत्र की स्थापना और पूजा से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। नवरात्रि, धनतेरस के दिन श्रीयंत्र का पूजन करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं।

श्री यंत्र के केन्द्र में एक बिंदु है। इस बिंदु के चारों ओर 9 अंतर्ग्रथित त्रिभुज हैं जो नवशक्ति के प्रतीक हैं। इन नौ त्रिभुजों के अन्तःग्रथित होने से कुल ४३ लघु त्रिभुज बनते हैं।
प्रार्थना खड्गमाला शब्द विद्या श्रीविद्याउपासना यज्ञशाला - श्रीतंत्र साधना

Thursday, 1 August 2019

श्रीतंत्र साधना शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या १४ है

॥ ॐ नमः शिवाय 

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।

उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥
अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना का उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपंच (चौदह) बार डमरू बजाया। इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।"

डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। प्रसिद्धि है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव के आशीर्वाद से प्राप्त किया जो कि पाणिनीय संस्कृत व्याकरण का आधार बना।

सूत्र : माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या १४ है जो निम्नलिखित हैं:
१. अइउण्।
२. ऋऌक्।
३. एओङ्।
४. ऐऔच्।
५. हयवरट्।
६. लण्।
७. ञमङणनम्।
८. झभञ्।
९. घढधष्।
१०. जबगडदश्।
११. खफछठथचटतव्।
१२. कपय्।
१३. शषसर्।
१४. हल्।
इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १० सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
प्रत्याहार :
प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः
हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् ं च् आदि) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।

Saturday, 27 July 2019

चरणोदक को ग्रहण करने से एक हजार तीर्थो में स्नान करने का पुण्य फल

यत्रनास्ति न च तत्र मोक्षो, यत्रास्तिमोक्षो न च तत्र भोगाः।
श्रीसुंदरीसेवनतत्पराणांभोगस्य मोक्षस्य करस्थ एव।।
अर्थात जहाँ पर भोग होता है वहाँ पर योग व मोक्ष नहीं होता। या कहें जहाँ योग व मोक्ष होता है, वहाँ भोग नहीं होता। साधारण शब्दों में जो संपन्न हो या संपन्नता जहाँ हो वहाँ भक्ति व योग वाला मन नहीं हो पाता। वैदिक आचरण व भक्ति व योगवालो के पास मन तो होता है पर उतनी संपन्नता नहीं हो पाती। केवल एक श्रीयंत्र ही है जो हमें भोग भी देता है व योग, मोक्ष भी देता है। यानी सब कुछ देने में सर्वसमर्थ है। श्रीयंत्र में श्रीविद्या का तात्पर्य व उपासना का समाथ्र्य समाया है। श्रीकामः सततंजपेत, यानी श्री की कामना के लिये जिस की सतत आराधना की जाय वो है श्रीयंत्र। “तीर्थस्नानसहस्त्रकोटिफलदंश्रीचक्रोपादोदकमं” अर्थात श्रीयंत्र के चरणोदक को ग्रहण करने से एक हजार तीर्थो में स्नान करने का पुण्य फल मिलता है। “रत्नेहेमनि रुप्ये च ताम्रेद्रषादि च क्रमात” यानी सोने, चांदी या ताम्बे से बना ही श्रीयंत्र श्रेष्ठ है - तंत्रराज तंत्रानुसार । अन्य शास्त्रों में जहाँ श्रीयंत्र के महात्मय का वर्णन है वहाँ भी इन्ही तीनो धातुओ से बने यंत्रो को ही महत्व दिया है न कि अष्ट वा पंच धातूओ का। इन धातुओ में यंत्र के वजन का भी प्रमाण कम से कम 250 ग्राम का होना चाहिये।इनका प्रकार भी तीन तरह से है  भूपृष्ठ यानी सीधा जमीन के समतल, मेरुपुष्ठ यानी पिरामिड जैसा या कूर्मपृष्ठ जो कि कछुवे की पीठ पर बनाया जाता है।
चतुभिः श्री कंण्ठैः शिवयुवतिभिः पंचभिरपि, प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपिमूलप्रकृतिभिःत्रयश्चत्वरिंशद्वसुदलकलाश्रश्च त्रिवलयः, त्रिरेखाभिः सार्धतव शरणकोणः परिणताः।
ये यंत्र की स्थापना व प्राणप्रतिष्टागुरुपुष्यामृत योग, रविपुष्यामृत योग, अक्षयतृतीया, धनत्रियोदशी, दिपावली, नववर्ष, शुक्रवार, एकादशी, त्रयोदशी, पूर्णिमा या चारों नवरात्रों में कर सकते है। श्रीयंत्र को यंत्रराज कहा गया है।क्यो कि सब यंत्रो में जो श्रेष्ठ है वह श्रीयंत्र है। एक होता है मंत्र, एक होेता है यंत्र, एक होताहै तंत्र, एक होती है प्रतिमा। जो मंत्र है वह देवता का शाब्दिक या कहैं वाचिक स्वरुप होता है। जो प्रतिमा या विग्रह होती है वह ध्यान लगाने के लिये होती है। परंतु अगर उस मंत्र को एक उर्जा के स्वरुप में प्रगट किया जा सके तो कैसा लगेगा वह यंत्र होता है। उनमें श्रीयंत्र एक संसद की भांति है। जैसे संसद में स्पीकर, प्रधानमंत्री इत्यादि का स्थान निश्चित होता है, उसी प्रकार विभिन्न उर्जाओ को आवाहन कर श्रीयंत्र में स्थान दिया जाता है। और तंत्र होता है। उसका प्रयोग होताहै। अतः तंत्र में औषधी, जडी-बूटी आदि भी आती हैं, पदार्थ भी आते हैं, प्रयोग भी आता है। श्रीयंत्र की जो साधना है उसके तीन अभिन्न अंग है, वो हैं ललितासहस्त्रनाम, श्रीयंत्र और मंत्र। मंत्र हो सकता है त्रयक्षरी हो या पंचदशी हो या षोढाक्षरी हो सकता है महाषोढाक्षरी हो, बिना श्रीयंत्र की साधना के श्रीविद्या की साधना पूरी नहीं हो सकती। श्रीविद्या की जो मूलदेवी हैं उनके अंर्तगत पंद्रह नित्याओ को व अष्टसिद्धीयो को स्थान दिया जाता है। और हर चक्र की जिसमें भुपुरसेचलतेहुए अष्टदल षोडशदल आदि भिन्न-भिन्न चक्र होते है, उनकी एक एक योगनी उस चक्र की अधिष्ठात्री होतीहै। एक होतीहै सृष्टीक्रम पूजा जो बनी है ग्रहस्थीयो के लिये है, क्यो कि वो जीवन मेंआगे बढना चाहते हैं, क्यो कि कुछ उत्पन्न करना है कुछ प्राप्त करना, इसमे साधक भीतर से बाहर की तरफ जाते है। एक होती है संहारक्रम इस मे साधक बाहर से भीतर की तरफ जाते है क्यो कि साधक सब कुछ समेंटना चाहता है। सृष्टीक्रम मे साधक प्रतीपदा से पूर्णिमा तक जाते है क्यो कि उसकी धरणा सृष्टीक्रम की है, आगे बढने की है। संहारक्रम ममं साधक प्रतीपदा से अमावस्या तक जाते है क्यो कि उसकी धरणा संहार की है, समेंटने की है। एक होती है स्थितिक्रम स्थायित्व के लिये। इनमें सृष्टीक्रम के श्रीयंत्र संहारक्रम या स्थिति से भिन्न होते हैं। सन 1966-67 में एक प्रयोग हुआ था जो कि अजीत मुखर्जी की पुस्तक में वर्णित है, एक ट्यूबली गयी उस पर रबड की एक अतिम हीन परत इस तरह चढायी गयी कि ट्यूब में अगर ध्वनीहोतोवहरबडमेंकंपंनहो।उसकेउपररेतबिछायीगयी। उस ट्यूबमेंश्रीविद्या के मंत्र का उच्चारण प्रसारित किया गया, जब उस मंत्र की पुनरुक्ति हुईतोरेत उछलने लगी, कुछ समय बादलगभगलगभगश्रीयंत्र काजो मध्य भाग है उस के समान की आकृती निर्मित हुई। जो दृष्टा थे ऋषि थे उन्होंने देखाकि यदि इस ध्वनी को एक आकारमेंउताराजाय तोकैसीदीखेगी, क्योकिवहमां त्रिपुरस\दरीकाउर्जा क्षेत्र है।
श्री यंत्र की जोपूजाहैउसमेंनवनाथंिजन्होने यह साधनासिद्ध की,समस्तदेवियोंका, पंद्रहनित्याओंका,अष्टसिद्धीयोका,गणपतिभगवानका,दश द्विकपालोकाव अष्टमूलयोगनियोकापूूजनहोताहै।  यह सारापूजनसिर्फश्रीयंत्र मेहीसंभवहै।अगरपूरा न करसकेतो खड्ंगमाला स्त्रोत्र मेंसभीदेविदेवता के नामजोश्रीयंत्र मेंहोतेहै, के द्वाराभीश्रीयंत्र पूजनसंभवहै।हमनेपायाहैकिमां की पूजाव्यक्तिचाहेअज्ञानतासेकरेे या जानबूझ के करेदीक्षीतहो के करे या बगैरदीक्षा के  फलितअवश्य होतीहैव्यर्थनहींजाती।कभी न कभीअपनाप्रभावजरुरदेतीहै।चूकिदेविमांस्वरुपहै, मांबच्चेकीगलतियोकोभीमाफकरतीहै, हरमांचाहतीहैकिउसकीसंतानसुखीरहे, उसकीइच्छाओकोपूर्णकरतीहै।अतः देवि की आराधनाअपनेआपमेंपरमशक्तिशालीहै।श्रीयंत्र के माध्यम सेजोदेविकीआराधना की जातीहैउससेजोउर्जाजाग्रतहोतीहैउसकोसंभालने के लियेअगरसाथमेंकिसीसात्विकउर्जाकीपूजा की जाय जैसे लक्ष्मी नारायण तोविवेकजाग्रतरहताहै।वर्नाउर्जा के जाग्रत हो नसेजैसेराकेटउपरतकतोजाताहैउर्जा के समाप्त होने पर नष्ट भ्रष्ट होकर बिखरजाताहै।लक्ष्मी(संम्पति)को केवल नारायण रखना जानतेहैं।श्रीकिसीकारणसेनारायण के साथहै।हलाहलकापानकरनाहैतो योगीहोनापडेगा।परंतूसात्वकिता के साथबगैरअंहकार के आयेअगरआज के युगमेंचलनाहैसमाजमेंचलनाहैतोनारायण की आराधनानितांतआवश्यक है।

यह लेख लिखनेेकातात्पर्यश्रीविद्याउपासना के कुछरहस्योपरप्रकाशडालने के लियेथाजोअपने जीवनमेंअनुभूतहुए व गुरुदेव की कृपासेप्राप्तहोनेकासंयोगबना।उक्तविचारव्यक्ति द्वाराअपने घर या कार्यस्थलपरश्रीयंत्र की सहीप्रकारसेस्थापनाहेतूहै न किमंदिरआदि के लिये।ऊँ शांती शांती शांतीः
सुरेशचतुर्वेदी“राजू”
9322880415






Thursday, 25 July 2019

प्रार्थना खड्गमाला शब्द विद्या । श्रीतंत्र साधना

।। ॐ ।। श्री महागणपतये नमः ।। श्री ललितांबिकाये नमः ।। माँ राजराजेश्वरी श्रीललिताम्बा षोडशी श्रीविद्या महात्रिपुरसुँदरी प्रार्थना खड्गमाला शब्द विद्या श्रीविद्याउपासना यज्ञशाला - श्रीतंत्र साधना

पञ्चदेव उपासना करने का विधान

पञ्चदेव उपासना के संदर्भ में कहा गया है - 'उपगम्य असनम् इति उपासना' अर्थात् भगवान की उपासना से तात्पर्य भगवान के समीप जाकर बैठने से है। यहां 'समीप बैठना' वैध इष्ट होने से यह शब्द भगवान की परिचर्या व पूजा के अर्थ में परिवर्तित हो जाता है।
पञ्चदेव उपासना

हमारे हिंदू धर्मग्रंथों में पंचदेवों की उपासना करने का विधान मिलता है। हर हिंदू को चाहिये कि वह पंचदेवों की आराधना अनिवार्य रूप से करे। भगवान के इन पांचों स्वरूपों में से किसी एक की भी उपेक्षा होने से पूजन अधूरा ही रहता है।  ये पंचदेव हैं - गणेश जी , विष्णु जी , शिव जी, दुर्गा जी एवं सूर्य जी। इन पंच देवों में भी ऐक्य(एकत्व) है अर्थात् ये एक ही परमेश्वर की पांच प्रमुख शक्तियां हैं। इन पंच देवों के आराधन से परमेश्वर की अन्य शक्तियों की आराधना भी स्वतः ही हो जाती है क्योंकि वे भी इनकी ही अंगभूता शक्ति हैं। पूजा
स्थल के सिंहासन में अपने  इष्ट को मध्य में रखने से ये पंचायतन पाँच तरह के होते हैं: 

श्री गणेश पंचायतन में देवताओं के मध्य गणेश जी स्थित होते हैं। 

१-श्री गणेश पंचायतन का मंत्र है- श्रीगणेशविष्णुशिवदुर्गासूर्येभ्यो नमः। 

यदि आपके इष्ट गणेश हैं तो आप अपने पूजागृह में "गणेश पंचायतन" की स्थापना के लिए सिंहासन के ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, मध्य में गणेश, नैर्ऋत्य कोण में सूर्य एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।

२-श्री विष्णु पंचायतन का मंत्र है- श्रीविष्णुशिवगणेशसूर्यदुर्गाभ्यो नमः। 

पूजागृह में 'विष्णु पंचायतन' की स्थापना करने के लिए सिंहासन के ईशान कोण में शिव, आग्नेय कोण में गणेश, मध्य में विष्णु, नैर्ऋत्य कोण में सूर्य एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।

३-श्री शिव पंचायतन का मंत्र है- श्रीशिवविष्णुसूर्यदुर्गागणेशेभ्यो नमः। 



पूजागृह में 'शिव पंचायतन' की स्थापना के लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में सूर्य, मध्य में शिव, नैर्ऋत्य कोण में गणेश एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।


४-श्री दुर्गा पंचायतन या देवी पंचायतन का मंत्र है- श्रीदुर्गाविष्णुशिवसूर्यगणेशेभ्यो नमः।

पूजागृह में 'देवी पंचायतन' की स्थापना करने के लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, मध्य में दुर्गा (देवी), नैर्ऋत्य कोण में गणेश एवं वायव्य कोण में सूर्य विग्रह को स्थापित करें।

५-श्री सूर्य पंचायतन का मंत्र है- श्रीसूर्यशिवगणेशदुर्गाविष्णुभ्यो नमः। 

पूजागृह में 'सूर्य पंचायतन' की स्थापना करने के लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में शिव, आग्नेय कोण में गणेश, मध्य में सूर्य, नैर्ऋत्य कोण में विष्णु एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।

सम्भव हो तो किसी विशेष पर्व पर उस पर्व से जुड़े देव के पंचायतन के अनुसार व्यवस्था करनी चाहिए जैसे गणेश चतुर्थी पर गणेश पंचायतन नवरात्रि पर देवी पंचायतन शिवरात्रि पर शिव पंचायतन इत्यादि.. 
इस प्रकार उपरोक्त में से किसी एक प्रकार के पंचायतन के अनुसार विग्रहों को व्यवस्थित करके उस पंचायतन से संबंधित मन्त्र से भगवान की उपासना करनी चाहिए।

Thursday, 11 July 2019

श्रीगणेश का सिर्फ एक मंत्र ही काफी है, हर विघ्न को समाप्त करने के लिए, पढ़ें चमत्कारी सिद्ध गणेश यंत्र-साधना


श्रीगणेश का सिर्फ एक मंत्र ही काफी है, हर विघ्न को समाप्त करने के लिए, पढ़ें चमत्कारी सिद्ध गणेश यंत्र-साधना
श्रीगणपति के अत्यंत चमत्कारी माने गए हैं। विशेषकर यंत्र मानव के समस्त कार्यों को सिद्ध करता है। इस यंत्र साधना द्वारा मानव को गणेश भगवान की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है और मानव पूर्ण लाभान्वित होता है। निम्न वर्णित विधि अनुसार गणेश यंत्र को शुक्ल पक्ष की चतुर्थी ति‍थि को शुभ मुहूर्त में शास्त्रोक्त विधान से ताम्रपत्र पर निर्माण करा लें। यंत्र को खुदवाना नि‍षेध है। यंत्र साथ कुम्हार के चाक की मृण्मय गणेश प्रतिमा, जो उसी दिन बनाई गई हो, स्थापित करें।

यं‍त्र साधना को 4 भागों में बांटा गया है- 

(1) दारिद्रय-नाश, व्यापारोन्नति, आर्थिक लाभ
(2) संतान प्राप्ति
(3) विद्या, ज्ञान, बुद्धि की प्राप्ति
(4) कल्याण, मनोकामना पूर्ति

चारों कार्यों की सिद्धि के लिए एक ही मंत्र है-

ॐ गं गणपतये नम:

किंतु जप संख्या और विधि भिन्न है।

प्रथम कार्य की सिद्धि के लिए सायंकाल,
दूसरे कार्य के लिए मध्याह्नकाल,
तीसरे-चौथे कार्य के लिए प्रात:काल के समय कंबल के आसन पर पीत वस्त्र धारण करके पूर्व या पश्चिम दिशा की तरफ मुख करके यं‍त्र के सम्मुख बैठें।

रुद्राक्ष की माला से प्रतिदिन 31 माला का जाप यंत्र एवं प्रतिमा का पंचोपचार पीतद्रव्यों से पूजन करके 31 दिन तक करना चाहिए। बाद में दयांश हवन, तर्पण, मार्जन करके 5 बटुक ब्राह्मण भोजन कराएं। यह कार्य अनुष्ठान पद्धति से होना चाहिए। मंत्र जाप करते समय 5 घी के दीपक एवं 5 बेसन के लड्डुओं का नैवेद्य अर्पण करना अनिवार्य है।

एक यंत्र और एक प्रतिमा एक ही कार्य के निमित्त एक ही प्रयुक्त होते हैं। बाद में उन्हें किसी पवित्र नदी में विसर्जित कर देना चाहिए। यह सिद्ध यंत्र तत्काल फल प्रदान करने वाला तथा अत्यंत चमत्कारी है।

Thursday, 20 June 2019

व्रजमें प्रचलित शक्ति-उपासनाके प्रमाण

मथुराका प्राचीन ५१वाँ शक्तिपीठ 
माँ चामुण्डा
व्रजमें प्रचलित शक्ति-उपासनाके प्रमाण
 

जय माँ, व्रजमण्डल श्रीकृष्ण भक्ति का केंद्र हैं, इसके साथ ही यदि व्रजके प्राचीन इतिहास, पुरातत्व और लोकजीवन की परम्परापर दृष्टि किया जाय तो यह ज्ञान होता हैं की शक्ति उपासना के प्रमाण मैं व्रजमण्डल का महत्व कम नहीं हैं, व्रजमण्डल मैं आदि अनादि काल से शक्ति उपासना की परंपरा चली आ रही हैं। शक्ति उपासना का उल्लेख श्रीमद्भागवतमें व्रजमें प्रचलित शक्ति-उपासनाके प्रमाण स्थान-स्थानपर मौजूद हैं।