- जयनाथ , जयनाथ ! जयकरुणासिन्धो ! जयकरुणासिन्धो ! दुस्तर संसारार्णव संतारण बन्धो। जयनाथ ! जयनाथ !! हे परमशिव स्वरूप गुरुनाथ ! आपकी जय है। आप करुणा के समुद्र है। अत्यन्त दारुण संसार - सागर से तारने के लिए आप ही एकमात्र शरण है। 1
- शिरसिस्थित साहस्त्रच्छद - कमलावासं छदकमलावासं
- शरणागत मोमुहृात कृत चित्त विकासं, गुरुनाथ त्वां ध्याये, मामुद्धर दासं मामुद्धर दासं चरणां बुज नत निजजन परिह्रतभव पाशम्।जयनाथ ! जयनाथ ! शिर में स्थित सहस्त्रदल कमल (ब्रह्रारंधृ) में चन्द्रमा की आल्हादक किरणों से आभायुक्त सर्वदेवमय - रूप में आप विराजते है। आप अपनी शरण में आये हुए उस विमूढात्मा के चित्त को भी स्वस्थता तथा बिकास प्रदान करते है , जो बारबार मोह को प्राप्त हो जाता है। में आपका ध्यान करता हूँ , आप मुझ दास का उद्धार करें | क्योंकि अपने चरण-कमलों में नत-मस्तक भक्तजन के भवपाश का छेदन करने में आप प्रसिद्ध है। नवनाथात्मकमंण्डल परिवृत्याधारमं , परिवृत्याधारमं निजभक्तःवृज दर्शित भवसागर - परमं वामांकामल - पीठ - स्थतसुन्दरदाराम स्थितसुंदरदारंम त्वां जाने कामेशं ह्रदये साकारं। जयनाथ। जयनाथ।।
- आप नवनाथात्मक - मण्ड़ल के आधार है | (गुरुमण्ड़ल का वर्णन इस प्रकार है ) "श्री नाथादि गुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं ; सिध्दोष वटुकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मंडलम | वीरांन्ध वष्ट चतुष्कषथनवके वीरावली पञ्चकं श्रीमन्मालिनि मन्त्रराज सहितं वन्दे गुरूमंडलम | | हे गुरुनाथ | आप ही इस परिक्रमा के आधार है | नवनाथ - १ प्रकाशानंद नाथ २ विमर्शानन्दनाथ ३ आनन्दानन्दनाथ ४ ज्ञानानन्दनाथ ५ सत्यानन्दनाथ ६ पूर्णानन्दनाथ ७ स्वभावानन्दनाथ ८ प्रितमानन्दनाथ ९ सुभगानन्दनाथ अपने भक्तो को भवसागर से पार होने का मार्ग दिखाने वाले आप ही है | आप के वाम-अंक रूप निर्मल पीठ पर भगवती कामेश्वरी विराज रही है | इस प्रकार हे कामेश्वर | आपको में अपने हृदय में साकार रूप से जनता हूँ |
- 3 प्रासादिक -परिवीक्षण-संतोषितलोकं संतोषितलोकं
- निजदर्शन दूरीकृत जनमानस -शोकं ध्यायं ध्यायं नैव स्थितमंहः स्तोकं, स्थितमंहः स्तोकं तर्पय चिद्रसवृष्टया मां नाथस्तोकम्। जयनाथ। जयनाथ।।
- अपनी प्रसन्नता -भरी द्र्ष्टि से समस्त लोकों को सन्तुष्ट करने वाले हे गुरुदेव। आप अपने दर्शन से भक्तो के ह्रदय के शोक को दूर कर देते है। आपका ध्यान करने वाले का थोड़ा पाप भी स्थित नहीं रह सकता (अर्थात सर्वतोभावेन नष्ट हो जाता है।) हे नाथ ! आप तनिक चिदरस (चैतंन्यरस) वर्षा से मुझे तृप्त करें। ४ ध्या मुरजाध्याखिल वाध्यध्वनि पूरित गगने , ध्वनि पूरित गगने। सम्मुखतिष्ठच्छू तिपरमुनिजनकृत मनने। नृत्यत्सुर नारीगण क्रतभूतलदलने, क्रतभूतलदलने। नीराजन समये तव धन्य; स्यां नमने। जयनाथ ! जयनाथ ! ! आपके नीराजन (आरती) के समय मुरज आदि सम्पूर्ण वाधौं की ध्वनि आकाश में प्रतिध्वनित हो रही है। आपके सामने वेद -परायण मुनि -जन बैठे हुए मनन चिन्तन कर रहे है तथा आनन्द -नृत्य करती हुई सुर -नारीगण विभोर हो कर पृथ्वी पर लोट -पोट हो रही है। इस महिमामय समय में आपको नमस्कार करने से में धन्य बनूँगा। हे नाथ ! आपकी जय है।
- ५ त्वत्रतव -स्तवने सुरगुरुरपि नैवात्यक्षमतां , नैवात्यक्षमतां। तत्किं रजोत्तरपदकामाख्य; क्षमतां , सत्यानंदस्वामिन ! तव चरणे नमतां, तव चरणे नमतां, मम मौलिश्चित्तं -चरणे त्वयि सततं रमताम। जयनाथ! जयनाथ ! ! श्री कामराजदी िक्षत कहते है कि , हे गुरुनाथ ! आपका स्तवन करने की क्षमता तो गुरुदेव आचार्य वृहस्पति की भी नहीं है, तो भला अस्मदादि जीव आपका स्तुति -गान कैसे करें ? हे सत्यानन्दस्वामिन ! में तो यही याचना करता हूँ कि मेरा चित्त सदा आपके चरणों में रमता रहे और मेरा सिर सदा आपके चरण कमलों में विनत रहे।।
- !! जयदेव !! जय देवि ! जय देवि ! जय विश्वाधारे, जय विश्वाधारे ! दीननाथोध्दारण -प्रवणे, जन सारे ! त्वत्पद-पदमे पदमे ! विघृत व्यापारे ! विघृत व्यापारे !
- मयि दीने कुरु करूणां कुरुणामृत -पारे ! जय देवि ! जयदेवि !
- हे माँ ललिते ! आपकी जय है। हे देवि ! आप समस्त विश्व -ब्रह्रााण्ड की आधार है तथा आप ही प्राणि -मात्र की शक्ति है। आप ही दीन और अनाथो के उद्धार - हेतु सतत प्रयत्नरत है ( संसार-पक-निर्मग्न समुद्धरण-पण्डिता। ) हे पदमे ! आपके चरण-कमलो ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृष्टि -स्थिति-विनाश-रूप व्यापार धारण कर रखा है। हे करुणामयी माँ! आप मुझ पर कृपा करेँ।
- २
- अमृतोदधिमध्यस्थित नवरत्नव्दीपे ! नवरत्नव्दीपे !
- विष्वक़ विकसित सुरतरु नव चंपक नीपे !
- नानकुसमामोदित विधुतागुरुधूपे, विधुतागुरुधूपे ,
- चिन्तामणि भाबनांगण तिष्ठत सुरभूपे !जयदेवि , जयदेवि !
- अमृतमय समुद्र के मध्य चारो ओर विकसित कल्पवृक्ष , नवचंपक तथा कदम्ब के उपवन से घिरे हुए नवरत्नव्दीप में नाना प्रकार के पुष्पों की सुरभि से युक्त अगरधुप से तरंगित चिंतामणि मंदिर के आँगन में शिवाकार-पर्यक पर विराजमान, हे राजराजेश्वरी देवेश्वरी ! आपकी जय है।
- ३
- माणिक्योंज्जवल चत्वर सिंघासन शोभे ! सिंघासन सोभे।
- शिवपंचक मंचेचित जनलोचनलोभे !
- सुश्वेतातपवारण चलचामरदण्डे ,चलचामरदण्डे !
- ध्याये भवतीमनिशं कृतजगदानन्दे। जयदेवि ! जयदेवि !
- हे माँ ! आप माणिक्य के उज्ज्वल चबूतरे रूप सिंघासन पर ब्रह्मा ,विष्णु,रूद्र ईश्वर और सदाशिवात्मक पर्यक पर विराजमान होकर अपनी कान्ति से भक्तजनों के नेत्रों को आकृष्ट करती है। श्वेत छत्र और चंचल चमार दण्डों से युक्त (स-चामर रमा-वाणी सव्य-दक्षिण सेविता )जगत को आनन्दित करने वाली हे जगदीश्वरी !हम आपका अहर्निश चिन्तन करते है। ४ दलितजपाकुसुमोपंवसनः छन्नाग्डी। वसनः छन्नाग्डी। तरुणारूण करुणाप्रदकिरणाबलिभृग्डी। दधती रचनां नयने यमुनातारग्डीम् , यमुनातारग्डीम् । कलयन्ती कुचकोशे सुषमां नारग्डीम्। ! जय देवि , जय देवि ! आप चुआये हुए जपा - कुसुम के समान सुन्दर लाल वत्रो से सुसज्जित है उष;काल में यमुना की चंचल लहरों और भवरों पर बालारुण की किरणों से जैसी दिव्य आभा उतपन्न होती है, ऐसी ही सोभा (करुणा-अनुराग-रंग से रंजित) आपके नयनो की है (दयामदारुणापांगाम) आपके उन्नत पयोधर नारंगफल जैसी सोभा का विस्तार कर रहे है। ५ शरपंचकवाणासनसृणिपाशोल्लसितां, सृणिपाशोल्लसितां मलयानिलयपरिवारितमुखपद्मस्वसिंतम्, बालामृतकरमण्डितचूड़ातटमहितां, चूडातटमहितां
- ज्योतिस्त्रितवलंकृतनयनत्रय सहितम्। ! जय देवि , जय देवि ! पंच तन्मात्रा-शब्द , स्पर्श , रूप , रस , और गन्ध रुपी पांच वाण , मनोमय इक्षु-धनुष , क्रोध-स्वरूप अंकुश एवं राग-स्वरूप पाश से
- उल्लसित हे माँ !आपके मुख-कमल से जो सांसे चल रही है , वे मलय-पवन की सपरिवार सुगंधित से परिपूर्ण है। आपके सिर पर अष्टमी का चन्द्रमा (अर्धचन्द्र) सुशोभित है। सूर्य चन्द्र और अग्नि रूप तीन ज्योतियाँ ही आपके तीन नेत्र है। ६ पशुपति-यंत्रण-पटुतर रोमावलियूपां रोमावलियूपाम् , मन्मथतस्करगुप्तिक्षम नाभीकूपाम् प्रपदालम्ब शिखामणि , वृन्दारक-भूपाम्।
- कमलासन,हरिहर,मुख,चिन्त्यामृतरूपाम्। ! जय देवि, जय देवि ! आपकी रोमावलि रूपी यूप (यज़ में जिस स्तम्भ से बलि पशु को बांधा जाता है , उसे यूप कहते है) से पशुपति भगवान भूतभावन भूतेश्वर भी आबद्ध है। भगवान शिव के तृतीय नेत्र से सन्त्रस्त कामदेव रुपी चोर को भी अापने अपने नाभि कूप में शरण दी है।
- (भगवान शंकराचार्य ने भी अपनी सौंदर्य-लहरी में कहा है)- हरक्रोधाज्वालाsवलिभिरवलीढेन वपुषा। गभीरे ते नाभिसरसि कृत संगो मन सिजः।
- देव-देवेश्वर की शिखामणि आपके चरणों को चूमती है एवं बह्रमा,
- विष्णु और महेश्वर आपके अमृतमय रूप का चिन्तन करते ही रहते है। ७ काली,बगुला,बाला,तारा,भुवनेशी तारा - भुवनेशी। बाराही, मातंगी, कमला, वचनेशी, छिन्ना, दुर्गा, गंगा, काशी, कामेशी, काशी - कामेशी त्वत्तोनान्यत्किचित त्वं चिद्रसपेशी। ! जय देवि , जय देवि ! महाकाली,तारा, बाला (षोडशी) भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, वगला (वगलामुखी) मातग्डी और कमला ये दस महाविध्या और वाराही, सरस्व्ती, दुर्गा, गंगा, कशी तथा कामेश्वरी आप ही है। आपसे प्रथक कुछ भी नहीं है। आप चिदानन्दमयी है। चिदेकरस-रूपणी। ८ त्वं भूमिस्त्वं सलिलं त्वं तेजः प्रबलं त्वं तेजः प्रबम् , त्वं वायुस्त्वं व्योमस्त्वं चित्तं विमलम् त्वं जीवस्त्वं चेशस्त्वं ब्रहॄास्यमलम् त्वं ब्रहॄास्यमलम्। सत्यानृतयोनान्य तत्वत्त; किंसकलम्। ! जय देवि , जय देवि ! हे माँ ! आप ही भूमि और जल है तथा आप ही प्रवल, तेज, वायु, आकाश और निर्मल चित्त है। आप ही जीव है और ईश्वर भी आप ही है। आप ही विशुद्धबह्रमा है। सत्य और अनृत में आप से पृथक कुछ भी नहीं है, अतः सकल और निष्कल बह्रम आप ही है। ९ कुलकुण्डे त्वं कुल कुरुषे देवि प्रस्वापं, देवि प्रस्वापं, स्वाधिष्ठाने मिहिरायुत दीधितपापं, नीला नाभौ कंठे शशिभाहृत-तापं , शशिभाहृत-तापं।
- वर्षस्यामृत-विन्दावानन्दावापम् ! जय देवि , जय देवि ! हे देवि ! आप चतुर्दलकमल आधारचक्र (कुलकुण्ड) में कुलकुण्डलिनि के रूप में शयन करती है। षड्दल चक्र (स्वाधिष्ठन) में आप दससहस्त्रसूर्यो की आभा को धारण करती है। नाभि में नील -कान्तिमय दसदलचक्र में तथा कण्ठ में विशुद्ध-षोडशदलचक्र में सथित अपनी शशिमयी आभा से तापो को दूर करती है। आनन्द के परम् िस्थान सहस्त्रदल-कमल से अमृत-विन्दु की वर्षा करने वाली आप ही है। १० त्वत्पदपदमे चित्तं त्रिपुरे ! मे रमतां, त्रिपुरे ! मे रमताम् । तत्रैव प्रतिवेलं मौलिर्मे नमताम् , यातायात;-क्लेशा; सध; संशमतां, सध; संशमताम् । याचे भूयो भूयो भवता मे भवताम् ! जय देवि , जय देवि ! हे त्रिपुरे ! में आपसे यही विनिती करता हूँ कि आपके चरण-कमलों में मेरा चित्त सदा रमा रहे और आपके चरण-कमलों में ही मस्तक विनत रहे। हे माँ !आप मेरे 'पुनरपि जननं 'पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ' रूप आवागमन को शीघ्र ही समाप्त करे। आपसे पुनः पुनः में यही याचना करता हूँ कि में सदा आपका ही रहूँ अथवा मुझे शिवत्त (भवता) प्राप्त हो। ११
- नृत्यति गायति सुरसं सुर-नारीवृन्दे ,सुर-नारीवृन्दे। करताली-दानोत्सुक , सुरविततानन्दे ,
- नीराजन-काले तव मुनिजन-कृतवन्दे , मुनिजन-कृतवन्दे।
- चरणाम्बुज सम्राजा; परिहृत भव खेदे ! जय देवि , जय देवि ! देवांगनाओं के समूह सुन्दर स्वर में आपके गुणों का गायन करते हुए नृत्य कर रहे है। देवता-गण उत्सुकता-पूर्वक ताली बजा-बजाकर आनन्द का विस्तार कर रहे है। ऐसा आपका यह आरती का समय मुनिजनों व्दारा वन्दित है। आपके चरण-कमल साम्राज्य दीक्षित के भव दुःख-निवारण करने में स्वभावतः प्रवृत्त है अथवा आपके चरण-कमळों के उपासकों के भवदुःख स्वयं ही दूर हो जाते है।
- श्री गुरोः पादुका मूर्ध्नि श्री चक्रं ह्रदि संस्थितम्। श्री विद्द्या यस्य जिह्राग्रे स साक्षात्परमः शिवः। ०
Tuesday, 16 January 2018
श्रीमत्कमराजदीछिथ; - रचित श्री महात्रिपुरसुंदरी - निराजन्म (जयनाथ)
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